बुधवार, 15 जुलाई 2020

मोक्षदायिनी माँ शबरी



हमने माँ शबरी के बारे बस यही धारणा सुनी व मानी है जो टैलीविजनों द्वारा हमे दिखाया गया कि शबरी एक बुजुर्ग भीलणी थी जो राम भक्त थी और राम ने उसके झूठे बेर खा कर उसे सम्मान दिया। जबकि यह तर्कसंगिग नहीं और ना ही सत्य है। दक्षिण भारत में स्थित तुंगभद्रा नदी के नजदीक एक सरोवर पम्पासर पर बना बहुत ही ख़ूबसूरत आश्रम ,जो माँ शबरी का आश्रम था। यह आश्रम विश्व-विख्यात था जहाँ लोग ज्ञान लेने आया करते थे।माँ शबरी जिन्होंने मातंग मुनि से योगविशिष्ठ ज्ञान ग्रहण कर सृष्टिकर्ता वाल्मीकि जी की शिक्षाओं का अपने आश्रम में रहते हुए प्रचार किया। जब राम व लक्ष्मण भटकते भटकते माँ शबरी के आश्रम पहुँचे तो सुरक्षाकर्मियों ने उन अजनबियों को बंधी बना लिया और माँ शबरी के पास ले आये। उस समय माँ शबरी बेर खा रही थी ,जो बेर मीठे नहीं थे उन्हें वह फैंक रही थी तो राम ने चतुरता दिखाते हुए जमीन पर पड़े बेर खाने शुरू कर दिए  ताकि वह दया के पात्र बन सके। इतना ही नहीं जो आजतक हम सुनते आए है कि सरस्वती ही संगीत की देवी है,यह भी झूठ है। र्क झूठ को अगर लगातार बोला जाए तो वह सत्य बन जाता है ,उसी तरह सरस्वती को जबरदस्ती संगीत की देवी बनाया गया। जबकि संगीत इतिहास में कही भी सरस्वती का जिक्र आता ही नहीं ,ना ही किसी संगीत शास्त्र में ।  जब आप संगीत का इतिहास पढोगे तो सारी कड़ियां आदिवासियों से ही जुड़ी मिलेगी। जिसमें कुशी-लव,लंकापति रावण के साथ साथ माँ शबरी का जिक्र आता है कि माँ शबरी संगीत कला की महारथी थी और उन्हें ही संगीत की देवी से नवाजा गया है। 

विक्की देवान्तक

सोमवार, 6 जुलाई 2020

सुय्या महान इंजीनियर

जय वाल्मीकि जी।            

वाल्मीकि समुदाय के महान अभियंता (इंजीनियर) सूय्या जी। 

आज का मेरा विषय वाल्मीकि समुदाय के महान इंजीनियर सूय्या जी के इतिहास पर चर्चा करना है। बहुत से बुद्धिजीवी साथी सूय्या के नाम से पहले भी परिचित होगे। लेकिन फिर भी इंजीनियर  सूय्या सिर्फ पुस्तकों तक ही सीमित है। जमीनी स्तर पर उनके इतिहास कि जानकारी बहुत कम पहुँची हैं। 

प्राचीन समय कि घटना है जम्मु कश्मीर में उत्पल वंश के शासक अंवतीवर्मन का शासन(855-885 ई.) था। उसी समय उनके राज्य में एक भयंकर अकाल पड़ा था। इस अकाल से बचने के लिए पानी की आवश्यकता थी। लेकिन पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। ऐसे में वाल्मीकि समुदाय के महान इंजीनियर सूय्या जी सामने आए। तथा राजा अंवतीवर्मन से आज्ञा लेकर उन्होने अपना कार्य शुरु किया। 
अपनी श्रेष्ठ बुद्धि व कला से उन्होने पत्थर के बांध के द्वारा नदी के मार्ग को बदल दिया। सूय्या ने सिंधु और वितस्ता नदियों के मेल को तोड़ा और महापद्म झील बनाने के लिए वितस्ता के किनारे-किनारे सात योजन तक  तटबंध बनवाया।  जिससे देश के बहुत बड़े भाग में  सिंचाई का प्रबन्ध हो सका। जिससे न केवल आकाल से बचाव हुआ। बल्कि कश्मीर और भी समृद्ध हुआ। और एक बड़ी समस्या से कश्मीर के लोगों को राहत मिली। और सूय्या कि इस योग्यता के कारण राजा अंवतीवर्मन व सूय्या दोनों ही इतिहास में अमर हो गए थे। राजा अंवतीवर्मन ने सूय्या के नाम पर एक नगर का नाम सूय्यापुर भी रखा था। जो वर्तमान सपोरा (जिला -बारामुला) के नाम से जाना जाता है। 

सूय्या के पालन पोषण से जुड़ी कथा बहुत ही आश्चर्य जनक हैं। कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिनी के अनुसार वह  साफ सफाई करने वाली एक चाण्डाल स्त्री सूय्या के दत्तक पुत्र थे। जो उन्हें सफा-सफाई करते हुए मिला था। लेकिन विचित्र बात है कथा के अनुसार चांडाल स्त्री ने सूय्या को कभी स्पर्श करके अपवित्र नहीं किया था। बल्कि एक अन्य स्त्री के द्वारा उसका पालन पोषण करवाया था। वह उसके पालन पोषण के लिए उस स्त्री को पैसे देती थी। लेकिन यह कथा संभव प्रतीत नहीं होती हैं। क्योंकि ऐसा कैसे हो सकता है कि वह उसे साफ-सफाई करते हुए मिला और उसने उसे स्पर्श न किया हो। इस कथा से प्रतीत होता है कि अकाल के समय में और कोई रास्ता नहीं था। इसलिए एक चांडाल पुत्र को बांध बनाने के लिए अनुमति तो मिल गई थी। लेकिन एक चांडाल पुत्र द्वारा कश्मीर को बांध बनाकर समृद्ध करने की घटना उन्हें हजम नहीं हो रही थी। दुसरा  इंजीनियर सूय्या को जाना भी उसकी चंडाल माता सूय्या के नाम पर जाता था। तथा अपने समृद्धि के दिनों में  सूय्या ने जो पुल बनावाया  व  ब्राह्मणो को जो गांव (सूय्या कुंडला) दान में दिया उन दोनों का नाम ही इस महान इंजीनियर ने अपनी माता के नाम पर रखा था। ऐसे में उसका चांडालो से रिश्ता तोड़ना मुश्किल था। इसलिए ही शायद उसे चांडाल स्त्री का दत्तक पुत्र घोषित किया गया। तथा पालन पोषण करते व चांडाल स्त्री द्वारा उसे न छूने कि कथा को प्रचलित किया गया। ताकि इंजीनियर सूय्या को किसी तरह गैर अस्पृष्यत घोषित किया जा सके। लेकिन मेरे दृष्टिकोण में वह एक चांडाल(वाल्मीकि)इंजीनियर ही  थे। वाल्मीकि समुदाय के महान इंजीनियर सूय्या समर्पित मेरा एक चित्र। 

वाल्मीकिधर्मी शुभम बडलान
    (आदि साहित्य संघ)

बुधवार, 1 जुलाई 2020

"वानर" यानि वन में रहने वाले



आदिकवि वाल्मीकि दयावान जी द्वारा रचित रामायण में आर्य अनार्य संस्कृतियों की भरमार है। वाल्मीकि कलम ने उस समय के द्रविड़,नागवंशी, भील आदि समुदाय के अनेकों महत्वपूर्ण पहलुओं को छुआ है। जिन्हें आधुनिक रामायण में तोड़ मरोड़ पेश किया गया। उन्हीं में से एक है "वानर"

वानर नाम आते ही इसका अर्थ सीधा बंदर या बंदर के मुंह वाले इंसानों से लिया जाता है जो कि गलत है। वाल्मीकि रामायण में ऐसा कुछ नहीं। वाल्मीकि रामायण में "वनचरिण:" शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ है वन में विचरण करने वाले मतलब वानर। वानर इस लिए भी कहा गया क्योंकि इस समुदाय के लोग जंगल के माहौल में ढलने के लिए बंदर जैसा मुकुट और पूंछ लगाते थे । कुछ विशेष लोग रीछ का मुकुट भी लगाते थे।

वानर समुदाय बहुत ही बुद्धिमान, राजनीतिज्ञ,बलवान व वैज्ञानिक था। जिसकी अद्धभुत मिसाल थे किश्किन्दा राज्य के सम्राट वीर बाली जिनका कत्ल राजा रामचंद्र द्वारा छल कपट नीति से उनके ही भाई सुग्रीव की मिलीभगत से किया गया।

वीर विक्की देवान्तक
आदि धर्म समाज
आधस भारत

बुधवार, 31 मई 2017

कथक के जन्मदाता वाल्मीकि जी के कुशीलव


भारत की सबसे अत्यधिक प्राचीन नृत्य शैली "कथक" से कौन परिचित नहीं। लेकिन सभी यह जान जरूर आश्चर्यचकित होंगे की कथक भी सृष्टिकर्ता वाल्मीकि द्वारा आदि आरम को बख्शी नृत्य शैली है।

सृष्टिकर्ता वाल्मीकि दयावान जी द्वारा रचित महाकाव्य रामायण को इस देश के आदिवासी सुमदाय आम लोगों तक गायन और नृत्य प्रस्तुति द्वारा प्रचारित किया करते थे । गायन के साथ नृत्य पेश करने वाले को कुशी-लव कहा जाने लगा और कुशीलव की इस नृत्य शैली को कथक नाम दिया गया।

कुशी-लव के बाद सृष्टिकर्ता वाल्मीकि द्वारा कुश लव ने भी इसी शैली द्वारा राम दरबार में पूरी रामायण पेश की थी। पर देश में बाहरी हमलों के कारण इस शैली में बहुत से परिवर्तन आए। धर्म से हट यह शैली राजदरबारों का अंग बन गयी। इसके मूल रूप को बिगाड़ कर रख दिया गया। मगर लखनऊ में यह शैली आज भी उसी रूप में है।

कथक जैसी नृत्य शैली वाल्मीकिन समाज की इतिहासिक धरोहर का एक अटूट अंग है जो हमें गर्वित करती है।

(सन्दर्भ-डॉ तमसा योगेश्वरी द्वारा लुधियाना सेमिनार में प्रस्तुत कुशीलव समुदाय की सम्पूर्ण चर्चा और संगीत पुस्तक का सफा नं 160)

विक्की देवान्तक

सोमवार, 29 मई 2017

प्रकृति रक्षक "राक्षस"

जय वाल्मीकि जय भीम

#सृष्टिकर्ता_द्वारा_प्रकृति_के_रूप_में_सबसे_सुंदर_सौगात_के_रक्षक_रहे_हैं_हम_राक्षस

महात्मा लंकापति रावण की तरह ही  उनके परिवार द्वारा सृष्टिकर्ता वाल्मीकि द्वारा रचित परियावरण की रक्षा की जाती थी। क्योंकि कुदरत हमें जीवित रहने के लिए सब कुछ बख्शती है हवा से लेकर अन्न तक,जो सभी जीवों के लिए समान है मनुष्य से लेकर जानवर तक और वृक्ष से लेकर पौधों तक। इसलिए हमें जीवन देने वाली कुदरत को जीवित रखना भी हमारा कर्तव्य है। जिसे आदि आरम(धर्म) के महान पूर्वजों ने बखूबी निभाया जिसके बदले उन्हें परियावरण को नुकसान पहूंचाने वालों ने राक्षस जैसे शब्द जोड़ दिए।

आदिवासियों की ये रक्ष संस्कृति बहुत ही महान थी। महात्मा रावण के मामा सूण्ड और उनकी पत्नी माँ ताड़का के बेटे वीर सुबाहू भी इस रक्ष संस्कृति के एक अभिन्न अंग थे। जो कुदरत को हानि पहुँचाने वाले हवन-यज्ञों को भंग किया करते थे क्योंकि तब हवन में वृक्ष,अन्न,फल-फूल और पशुओं की बलि दी जाती थी ।  वीर सुबाहू ने कुदरत की रक्षा हेतु इन हवन यज्ञों को भंग करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।

ऐसा नही कि हमे कूटनीतियों द्वारा रक्ष संस्कृति से तोड़ हवन-यज्ञ प्रथा से जोड़ने की कोशिश नहीं की गयी। उसका उदाहरण हम हमारे समाज में होने वाली भूत पूजा में देख सकते हैं जिसमें एक गोबर के जलते टुकड़े पर घी डाल धुंआ फैलाया जाता है,जिसमें हवन यज्ञ की छवि दिखाई पड़ती है।शायद ये बतलाता है कि हमें कुदरत रक्षा से तोड़ने के लिए ऐसी कुरीतियों से जोड़ा गया। लेकिन देश के कुछ आदिवासी समुदाय आज भी उस रक्ष संस्कृति को जिंदा रखे हुए हैं जो सृष्टिकर्ता को कुदरत के रूप में पूजते हैं और उसकी रक्षा के लिए पूंजीवादियों से ख़ूनी जंग लड़ रहे हैं। हमारे पूर्वजों को जैसे रक्षस से राक्षस बनाया इन रक्ष संस्कृति के रक्षकों को नक्सली बना दिया गया है।

#विक्की_देवान्तक
#आधस_भारत
9988757204

गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

रक्षस से राक्षस

अक्सर हमें कहानियों,चल चरित्रों,ग्रन्थों द्वारा बतलाया व दिखाया जाता है कि बीते युगों में देवों और इंसानों के इलावा एक और जीव धरती पर थे,जिन्हें राक्षस कहा जाता था। जो खूंखार किस्म के होते थे और उनका कार्य मानव मांस भक्षण,लूटपाट,देवताओं के साथ युद्ध करना था। राक्षसों की मनघड़ित रुपरेखा का भी प्रचलन किया गया कि उनके बड़े-बड़े नाख़ून,तीखे दांत,घने बाल, बदसूरत चहरा होता है। 

लंकापति रावण,हिरण्यकश्यप,शंखचूड़,तक्षक आदि को राक्षसों की सूचि में रखा गया है। जबकि सत्य इसके बिलकुल विपरित है। राक्षस कोई देव या मानव से अलग प्रजाति नहीं थी। बल्कि राक्षस एक संस्कृति का नाम था। असल में ये शब्द "रक्षस" था जिसका अर्थ था रक्षा करने वाले।  लेकिन समय और इतिहासिक मार ने रक्षस को राक्षस बना दिया। रक्षस संस्कृति भारत के मूलनिवासी राजाओं द्वारा शुरू की गयी थी,जिनमें लंकापति रावण,शंखचूड़,हिरण्यकश्यप आदि शामिल थे। इस संस्कृति से जुड़े दल को रक्षस दल कहा जाता था। जिनका कार्य पर्यावरण की रक्षा करना था। यह रक्षस दल पर्यावरण को नुकसान पहुचाने वाले हवन,यज्ञों और पशु बलियों के खिलाफ था और इनको रोकने के लिए वचनबद्ध था। हवन-यज्ञों के नाम पर फल,फूल,अनाज,वृक्ष आदि को अग्नि में भस्म कर दिए जाता था ,इसलिए रक्षस दल इसका घोर विरोधी था । शास्त्रों और ग्रन्थों के मुताबिक पहले हवन-यज्ञों में पशु बलि का भी प्रचलन था,जिसको रक्षस दल ने बन्द करवाया।

धर्म के ठेकेदारों ने इसी कारण महान संस्कृति को  गलत तरीके से प्रचलित कर रक्षस जैसे महत्वशील शब्द को राक्षस बना दिया।

विक्की देवान्तक

मोक्षदायिनी माँ शबरी

हमने माँ शबरी के बारे बस यही धारणा सुनी व मानी है जो टैलीविजनों द्वारा हमे दिखाया गया कि शबरी एक बुजुर्ग भीलणी थी जो राम भक्त थी...